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अध॒ ज्मो अध॑ वा दि॒वो बृ॑ह॒तो रो॑च॒नादधि॑ । अ॒या व॑र्धस्व त॒न्वा॑ गि॒रा ममा जा॒ता सु॑क्रतो पृण ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

adha jmo adha vā divo bṛhato rocanād adhi | ayā vardhasva tanvā girā mamā jātā sukrato pṛṇa ||

पद पाठ

अध॑ । ज्मः । अध॑ । वा॒ । दि॒वः । बृ॒ह॒तः । रो॒च॒नात् । अधि॑ । अ॒या । व॒र्ध॒स्व॒ । त॒न्वा॑ । गि॒रा । मम॑ । आ । जा॒ता । सु॒क्र॒तो॒ इति॑ सुऽक्रतो । पृ॒ण॒ ॥ ८.१.१८

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:1» मन्त्र:18 | अष्टक:5» अध्याय:7» वर्ग:13» मन्त्र:3 | मण्डल:8» अनुवाक:1» मन्त्र:18


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शिव शंकर शर्मा

सर्वस्थान से ईश्वर बचाता है, यह इससे उपदेश देते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (सुक्रतो) हे सृष्टिरचना प्रभृति शोभनकर्म करनेवाले इन्द्र ! (अध) इस समय मेरी (अया) इस (तन्वा) विस्तृत वा अतिसूक्ष्म (गिरा) स्तुतिरूप वाणी से प्रसन्न होकर (ज्मः) पृथिवी पर से (अध +वा) अथवा (दिवः) अन्तरिक्ष से अथवा (बृहतः) महान् (रोचनात्+अधि) सूर्य, चन्द्र तथा विविध नक्षत्रादिकों से देदीप्यमान प्रदेश से अर्थात् जहाँ तू हो, वहाँ से (वर्धस्व) मेरे निकट आने के लिये आगे बढ़ तथा (मम) मेरे (जाता) जातक पुत्रादिकों को (आ+पृण) अभीष्ट फलों से पूर्ण कर ॥१८॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा सर्वत्र विद्यमान है, उसका कहीं एक स्थान नियत नहीं। मूर्खजन उस व्यापी को एकदेशी जान इधर-उधर दौड़ते हैं। हे मनुष्यो ! जहाँ तुम ध्यान करोगे, वहाँ ही वह है। वहाँ ही उसको पावोगे, यह निश्चय है ॥१८॥
टिप्पणी: १−(जमति=गच्छति) जो सूर्य्य की चारों तरफ घूमे, उसे ज्मा कहते हैं। पृथिवी के नामों से एक नाम ज्मा है। वैदिक निघण्टु में पृथिवीवाचक जितने शब्द आए हैं, उनमें से एक भी शब्द ऐसा नहीं, जो पृथिवी को अचला कहता हो। जब पृथिवी की गतिसम्बन्धी विद्या भूल गए और समझने लगे कि सूर्य्यादिवत् पृथिवी चलती नहीं, किन्तु स्थिरा है, तब से इसको अचला, स्थिरा आदि नामों से पुकारने लगे। रोचन=दीपन। पृथिवी आदि कई एक प्रदेश स्वयं प्रकाशवान् नहीं हैं, किन्तु आकाश में अनन्त लोक महाप्रकाशवान् हैं, अतः उन प्रदेशों को रोचन कहते हैं। वर्धस्व। यद्यपि भगवान् सर्वव्यापक है तथापि भक्ति प्रेम श्रद्धा द्वारा कहा जाता है कि हे भगवन् ! मेरे निकट आइये, इत्यादि आलङ्कारिक वचन हैं ॥१८॥
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आर्यमुनि

अब सर्वनियन्ता परमात्मा से वृद्धि की प्रार्थना कथन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (अध) हे परमात्मन् ! इस समय (ज्मः) पृथिवी (वा) और (बृहतः) महान् (रोचनात्) दीप्यमान (दिवः) अन्तरिक्षलोकपर्य्यन्त (अधि) अधिष्ठित आप (अया) इस (तन्वा) विस्तृत (गिरा) स्तुतिवाणी से (वर्धस्व) हृदयाकाश में वृद्धि को प्राप्त हों। (सुक्रतो) हे सुन्दरकर्मवाले प्रभो ! (मम) मेरी (जाता) उत्पन्न हुई सन्तान को (आपृण) उत्तम फलयुक्त करके तृप्त करें ॥१८॥
भावार्थभाषाः - भाव यह है कि इस मन्त्र में अन्तरिक्षादि लोकों में भी व्यापक, सर्वरक्षक तथा सर्वनियन्ता परमात्मा से यह प्रार्थनाकथन किया है कि हे प्रभो ! आप हमारे हृदय में विराजमान हों और हमारे ऐश्वर्य की वृद्धि तथा हमारी सन्तान को उत्तम फल प्रदान करें, जिससे वे संसार में सुख-सम्पत्ति को प्राप्त हों ॥१८॥
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शिव शंकर शर्मा

सर्वस्मात्स्थानादीश्वरो रक्षतीत्यनयोपदिशति।

पदार्थान्वयभाषाः - हे सुक्रतो=शोभनाः क्रतवः संसाररचनादिकर्माणि यस्य स सुक्रतुः। तत्सम्बोधने। हे संसृष्ट्यादिकर्मकारिन् इन्द्र ! अध=इदानीं। ज्मः=जम१ति गच्छति सूर्य्यं परितो या भ्रमति सा ज्मा पृथिवी। तस्याः सकाशात्। अध वा=अथवा। दिवाः=अन्तरिक्षात्। अथवा। बृहतः=महतः। रोचनादधि=सूर्यचन्द्रनक्षत्रादिभिर्दीप्यमानात् प्रदेशात्। अधिः पञ्चम्यर्थानुवादी। कस्माच्चिदपि स्थानात्। अया=अनया। तन्वा=ततया विस्तृतया सूक्ष्मया वा। गिरा=स्तुतिलक्षणया वाण्या प्रसन्नो भूत्वा। वर्धस्व=ममान्तिकगमनाय चल। तथा मम। जाता=जातान् अपत्यादीन् जनान्। आपृण=अभीष्टैः फलैः पूरय ॥१८॥
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आर्यमुनि

अथ परमात्मनः स्वाभ्युदयः प्रार्थ्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - (अध) अधुना हे परमात्मन् ! (ज्मः) पृथिव्याः (अध, वा) अथ च (बृहतः) महतः (रोचनात्) दीप्यमानात् (दिवः) अन्तरिक्षात् (अधि) तद्व्याप्य अधिष्ठितः (अया) अनया (तन्वा) महत्या (गिरा) स्तुतिवाचा (वर्धस्व) हृदये वृद्धिं प्राप्नुहि (सुक्रतो) हे सुकर्मन् ! (मम, जाता) ममोत्पन्नान् प्राणिनः (आपृण) आतर्पय ॥१८॥